सो रहे हैं वोह, जो किस्मत के भरोसे हैं |
जग गए हैं वोह, जिन्हें कुछ करना है |
सुबह का सूरज चढ़ता है,
और दिन भर पिघलता है |
उसके संघर्ष में काव्य है,
वोह कर्म प्रज्वलित करता है |
मैं भी उठता हूँ रोज़ सुबह,
उस सूरज से कुछ अग्नि लेकर |
मेरा भी नाम तुम गिनन लेना,
उस सांसारिक काव्य की रचना में |
ये पक्षी , पवन, पशु, नर-नारी ,
सब चलते हैं रोज़ सुबह |
एक नए इतिहास क़ि रचना में ,
तब-ही इतिहास बदलता है |
सो रहे हैं वोह, जो किस्मत के भरोसे हैं |
जग गए हैं वोह, जिन्हें कुछ करना है |
उस मानव पथ पर चलना है |
जहाँ चलना गिरना फिसलना है |
और उठ के हर पल चलना है,
उन्ही दो पंक्ति को रचना है |
सो रहे हैं वोह, जो किस्मत के भरोसे हैं |
जग गए है वोह, जिन्हें कुछ करना है ||
– विशु मिश्रा