सहर
किसी शोर मचाती सनसनाती,
हवा के झोके ने |
किसी पतझध के आखिरी मौके पे,
और अपने घर को संझोते हुए,
किसी पक्षी ने ,धोके से,
वो आखिरी पत्ता भी तुडवा दिया |
और इस महान दृश्य के मौके पे,
सूरज की किरण चमकने से,
मेरे बरगद से ज्ञान को महका दिया |
हर सुबह के अट्टहास में,
बिन बारिश के भी,इस इतिहास ने,
आज फिर, मेरे प्यासे मनन को महका दिया |
किसी और के इंतज़ार में, मैं चला किसी ओर |
किसी लहर के इंतज़ार में, जैसे थमा कोई छोर |
हर किरण की लालसा में यूँ बढती मेरी ओर,
और बढ़ता चला जा रहा निरंतर;इस कोलाहल का शोर |
और बढ़ता चला जा रहा निरंतर ,ये अन्धकार मेरी ओर ||
और हर एक पल,एक -एक शन को जी कर,
मेरा मनन,ये पक्षी और बस मैं |
इन् शनों में जीता चला जा रहा बस मैं…
इस लिए में बरगद हूँ |
चुप चाप अपने लम्हों को समेटे हुए,
उसी पल,
बादलों को अपनी और बढता देख रहा हूँ |
क्या ये बारिश का पल होगा,
या एक और रात का कहर,
या फिर सोचते हुए उस सूरज की तपिश को,
मै जियूंगा,इक और रात का सहर ||
विशु मिश्रा
तिथित: 20-10-2008